Sunday, July 28, 2024

गुड़ का गोबर, और गोबर का गुड़ जैसे?

मेरे घर से निकल? 

ऐसे शब्द, ज्यादातर गरीब और कम पढ़े-लिखे तबकों में ज्यादा सुनने, देखने को मिलते हैं। पढ़े-लिखे और समर्द्ध इलाकों में नहीं। क्यूँकि, वहाँ सबके पास कम से कम, इतना-सा तो होता ही होगा? वैसे भी, ऐसी-ऐसी, छोटी-मोटी सी लडाईयाँ, छोटे-मोटे लोगों के यहाँ ही ज्यादा होती हैं। बड़े लोगों के यहाँ, ऐसी-ऐसी, आम-सी जरुरतों के लिए नहीं, बल्की किन्हीं खास वर्चस्वों या अहमों की लड़ाईयाँ होती होंगी। जैसे कुर्सियों की, सत्ताओं की। वहाँ तो लोगों के पास घर भी एक नहीं, बल्की कई होते हैं। और घर के हर इंसान के नाम होते हैं। अच्छे-अच्छे शहरों और देशों में होते हैं।  

इनमें से किसका देश ज्यादा विकसित है?

भारत? BHARAT? इंडिया? या INDIA? वैसे आप कौन-से वाले भारत में रहते हैं? जो अपने आपको विकसित कहते हैं, वहाँ वालों को तो ऐसा कुछ, शायद ही कभी देखने-सुनने को मिलता होगा? जैसे, "मेरे घर से निकल"? या मिलता है? शायद, जिन्होंने रेंट पे दिए हों, वहाँ हो सकता है? 

या शायद सरकारी मकान वालों को भी? वहाँ भी कहीं, ऐसा कुछ देखने-सुनने को मिलता है क्या? भारत जैसे देश में शायद? बड़े साहबों के बच्चे, किन्हीं गरीबों द्वारा ऐसा कहलवा सकते हैं? क्यूँकि, so called बड़े लोग, आपको शायद ही कभी ऐसे केसों में आमने-सामने मिलें। हाँ। दूर बहुत दूर बैठे जरुर, वो सब कर रहे होंगे या देखते-सुनते होंगे। वो भी लाइव, उसी वक़्त, अगर चाहें तो। या रिकॉर्डिंग्स बाद में, अपनी सुविधा अनुसार।    

और पुस्तैनी जमीनों पे? यहाँ भाई, बहन को कहते मिल सकते हैं? माँ या बेटी को भी? और शायद बीवी को भी? या शायद, कमजोर भाइयों को भी? सिर्फ कह नहीं सकते, बल्की ऐसी सब जगहों पे मार-पिट भी सकते होंगे? वैसे भी, मेरे महान "यत्र पूज्यन्ते नारी, रमन्ते तत्र देवता" वाले देश में तो? थोड़ा गलत लिख दिया शायद? 

गूगल बाबा से पूछें?    


घणी पेल गया, लाग्या यो तो?
आप क्या कहते हैं? 
  
कोई आपपे पहली बार हाथ उठाए, तो माफ़ कर देना चाहिए। है ना? दूसरी बार उठाए, तो सावधान हो जाना चाहिए और थोड़ी बहुत उसकी भरपाई भी होनी चाहिए। जिसे आदत हो या जल्दी भड़कने वाला इंसान हो? या हमारे यहाँ तो चलता है सब, जैसे? वो आपके सामने ऐसे-ऐसे उदहारण पेश करेंगे, जैसे यहाँ औरतें तो खासकर, रोज ही पीटती हों। और उनके अधिकार वैगरह कुछ नहीं होते। जो होता है, या तो So-called मर्दो का या जिसकी लाठी, उसकी भैंस? फिर बड़ा क्या और छोटा क्या?
  
आप क्या कहते हैं? ऐसे केसों में, अपना हिस्सा अलग करो और अपने-अपने रस्ते खुश रहो? या माफ़ी माँग ले, तो जाने दो? खासकर, जब कुछ हो ही ना? नहीं तो, इनका कुछ नहीं सुधरना?

ये पढ़ाई-लिखाई छोड़कर, कौन से झमेलों में आ गए हम? गुड़ का गोबर, और गोबर का गुड़ जैसे? यही एकेडेमिक्स कहलाता है शायद?  

आजकल तारीख पता है क्या चल रही है? कल क्या थी? और आज? और कल? सामान्तर घड़ाईयाँ या राजनीती के खेलों की लड़ाईयाँ, इन सबके खास आसपास घूमती हैं। खेल के कोढों के हिसाब-किताब से भड़कावे और उकसावे होते हैं और उन्हीं के हिसाब-किताब से सामान्तर घड़ाईयाँ घड़ी जाती हैं। कैंपस क्राइम सीरीज से लेकर, सामाजिक घड़ाइयों तक के यही हाल हैं। ये सब ये भी बताते हैं, की आम आदमी को खासकर, राजनीती और बड़ी-बड़ी कंपनियों ने कैसे और किस कदर अपना गुलाम (मानव रोबॉट्स) बनाया हुआ है।          

उकसावे? माहौल? और राजनीती? 2

सिर्फ उकसावे ऐसा करवाते हैं? या राजनीती भी माहौल बनाती है, लोगों के आसपास का? राजनीती की सुरँगों के राज यही हैं? 

जिन्हें हुक्का थमा रहे हो, उन्हें उनके लायक किताबें थमाने की कोशिश की क्या? या ऐसा कोई उनके लिए विकल्प, आपके जहन में ही नहीं आया? ऐसे-ऐसे विकल्प, तो सिर्फ अपनों के लिए हैं? या उनके लिए सिर्फ, जिनमें आप का फायदा हो?  

और ये खास-उकसावों वाले, उस पर ये भी बोलते हैं, की पसंद-नापसंद तो सामने वाले की है, खेल या राजनीती हमारी सही । मतलब, ऐसे खिलाड़ियों के पास या ऐसे बेचारे भोले-भाले राजनीती वालों के पास, अपनी जनता के लिए ढंग के विकल्प ही नहीं हैं? बोतलें थमाने के, ड्रग्स सप्लाई के या हथियारों तक पहुँचाने के और हादसे करवाने के? उससे भी बड़ी बात, law and enforcement ऐसे केसों में क्या करता है, जिसको सिर्फ भनक ही नहीं, बल्की खबर तक पहले से होती है, की ऐसा होने वाला है या हो सकता है? या करवाया जा रहा है? 

राजनीती ऐसे जैसे, 

आप टाँग तुड़वाए पड़े हों। और कहीं, आपके आसपास कुनबे तक के बच्चों को पढ़ाया गया हो, वो तो Live-in थी? और आपको वो सब पता चले, उस हादसे के सालों बाद। क्यूँकि, आपने उस आसपास को जानना अभी शुरू किया है, जब वहाँ रहना पड़ा। नहीं तो ऐसी-ऐसी पढाईयों की खबर भी ना होती। और क्या हो अगर कोई सच में live-in रह रहा हो? हाय-तौबा मच जाएगी? इतने सालों बाद भी, यहाँ बदला बहुत कुछ नहीं। या शायद जो कुछ बदल जाता है, वो वापस गाँवों की तरफ आता ही नहीं। इसीलिए, इतने घर खाली होते जा रहे हैं?      

ऐसे जैसे, कहीं बोला गया हो किसी को, Run for cover और वो आपके बारे में इसके या उसके बहाने जैसे, बोलते नज़र आएं, "हे शंकर क्यां क छोरी भाज गी"। वो दादी-ताई, जो छोटे बालों वाली बच्ची को परकटी बोल सकते हैं, ऐसे-ऐसे स्मार्ट बच्चों की ऐसी-ऐसी स्मार्ट गपशप को कैसे लेते होंगे? यही मौहल्ला क्लिनिक चला रखे थे क्या, कुछ बड़े लोगों ने? कुछ इधर की पार्टी वालों ने, और कुछ उधर की पार्टी वालों ने?

ऐसे जैसे, स्कूल बनाने की बात हुई तो, "यो तो थारी ज़मीन खा जागी"। और भड़काने वाले जिन बेचारों को ये तक नहीं मालूम, की उसने तो उनकी बच्ची को पैदाइश से पहले ही unofficially गोद लिया हुआ है। और भड़कने वालों को ये तक ना समझ आए, ये ज़मीन लेके जाएगी कहाँ? ना शादी की हुई, ना बच्चा। जो है वो भी तुम्हारा। और मान भी लिया जाए, तो क्या वो तुम्हारी ज़मीन खाना कहलाएगा? या उसका अपना हिस्सा लेना, जो आज तक इन इलाकों की लड़कियाँ, भाई-बंधी में छोड़ देती हैं। ऐसे-ऐसे नालायकों के पास तो छोड़ना नहीं चाहिए शायद?     

ऐसी-ऐसी कितनी ही, contradictory-सी कहानियाँ भरी पड़ी हैं यहाँ। कैसे भला? कुछ तो लोगों के पास, कुछ खास करने-धरने को होता नहीं। यहाँ-वहाँ की गॉसिप से अच्छा टाइम पास हो जाता होगा। काफी कुछ राजनीतिक तड़के होते हैं। जैसे जिन बच्चों को live-in जैसी कहानियाँ सुनाई गई होंगी, उन्हें इनके कोढ़ और live-in या out, checked in या chacked out जैसे कोढों के मतलब थोड़े ही बताए होंगे। इन बेचारों के live-in तो शायद, दुनियाँ के आरपार, एक छोर से दूसरे छोर पे हो जाते हैं, बैठे बिठाए। Checked in, checked out, एक एयरपोर्ट से, दूसरे एयरपोर्ट तक के सफर में हो जाते होंगे, उड़ते-उड़ते ही? ऐसे कोड बताते, तो सारी परतें ना खुल जाएँ की ये राजनीतिक पार्टियाँ खेल क्या रही हैं? और तुम क्यों और कैसे उनके हिस्से बने हुए हो? तुम्हारे अपने यहाँ ऐसे-ऐसे और कैसे-कैसे हादसों के बारे में कब, किसने बताया? अगर नहीं तो क्यों नहीं? खासकर, जिनके बारे में आम आदमी को पता होना चाहिए, बिमारियाँ और मौतें। वो भी राजनीती के कोढों की धकेली हुई। कुछ ज्यादा समझदार, पढ़े-लिखे, उसपे कढ़े, कहीं ऐसे-ऐसे केसों में, पूरे घर को ही तो तबाह के चक्कर में नहीं लगे हुए?   

Saturday, July 27, 2024

मेरी किताबों की दुनियाँ

आधी अधूरी-सी पढ़ी किताबें? या कवर देखकर, समझने की कोशिश की किसी किताब को, और पन्ने पलटकर रख दी गई किताबें? कभी शायद वक़्त नहीं था, उस विषय को पढ़ने का तो कभी शायद रुची? फिर कुछ ऐसी किताबें या विषय भी हैं, जो एक बार नहीं, बल्की कई बार पढ़े? जाने क्या रह गया था या समझ नहीं आया था एक बार में, उनमें? फिर कुछ-एक ऐसी भी किताबें जो जितनी बार पढ़ी, उतना ही कुछ नया मिला जैसे पढ़ने को? बहुत-सी शायद ऐसी भी किताबें, जो किताबों से नहीं, बल्की, उनके लेखकों के दूसरी तरह के मीडिया से ज्यादा पढ़ी और समझी? जैसे ब्लॉग्स से या खबरों से या लेक्चर्स या और छोटे-मोटे वीडियो से? 

बहुत-सी किताबों को या विषयों को पढ़ने या समझने का मतलब, सिर्फ थ्योरी नहीं होता, बल्की प्रैक्टिकल होता है। ये किसी प्रैक्टिकल ने ऐसे और इतने अच्छे-से नहीं समझाया, जितना केस स्टडीज़ ने। कैंपस क्राइम सीरीज़ तो सिर्फ एक छोटा-सा ट्रेलर था। 

वो फिर चाहे एक तरफ माँ का Gall Bladder Stone ऑपरेशन रहा हो, तो दूसरी तरफ December 2019, एग्जाम फ्रॉड। मेरा अपना March 2020 backside terrible pain और हॉस्पिटल में टैस्टिंग के नाम पे kidney stone है या gall bladder stone है, जैसे ड्रामे। उसपे दूध की थैली से निकला जैसे सोडा, जिसमें कोई स्मैल नहीं और कोई खास स्वाद में फर्क नहीं देख, मेरा रोहतक से नौ दो ग्यारह होना हो, अपने गाँव। और कोरोना की शुरुवात जैसे। सही बात है, आप इतना कुछ कैसे सिद्ध कर पाएँगे? पागल नहीं तो क्या कहलाएँगे? सबसे बड़ी बात, ऐसी-ऐसी और कैसी-कैसी रिकॉर्डिंग्स, बड़े-बड़े लोगों के पास होने के बावजूद। फिर ऐसे-ऐसे पागलों पे देशद्रोह भी चलता है? ऐसे-ऐसे Mentally Sound (?) लोगों को या so-called officers को आप क्या कहेंगे? वो तो सब कुछ IRONED OUT कर देंगे? 

वैसे, इस IRONED OUT का सही मतलब क्या है? वैसे तो एक ही शब्द के कितने ही मतलब हो सकते हैं। जैसे एक पहले वाली पोस्ट में पढ़ा जैसे? और कुछ और सामने आए, जैसे?   

आयरन खत्म कर, मारना जैसे?

या ANEAMIA कर मौत तक पहुँचाना जैसे? लो जी, एक और कोड आ गया, ANEAMIA   

या?

मार-पीट कर यूनिवर्सिटी से ही नफरत करवाना जैसे? की ऐसे माहौल को छोड़, वो खुद ही भाग जाए?

या PRESSED OUT जैसे? Pressed को Processed भी लिख सकते हैं?    

इतना कुछ सिर्फ थ्योरी वाली किताबों से कहाँ समझ आता है? उसके लिए आपको ईधर-उधर, आसपास, बहुत-कुछ, देखना-सुनना और समझना पड़ता है। कभी समझ आ जाता है। कभी-कभी शायद दिक्कत भी होती है, समझने में। मगर रिसर्च या केस स्टडीज़ की किताबें, शायद ऐसे ही छपती हैं। जितने बड़े एक्सपर्ट, उतनी ही, गूढ़-सी कहानियाँ जैसे। कुछ ऐसी-सी किताबें पढ़ी हैं। जो अपने आप में केस स्टडीज़ हैं या केस स्टडीज़ जैसी-सी ही हैं। साइंस, टेक्नोलॉजी, मीडिया, कल्चर का मिश्रण, सब साथ-साथ चलता है। Highly Interdisciplinary दुनियाँ में हैं हम। फिर कुछ कविताओं की या बच्चों की किताबें भी हैं, जिन्हें शौक कह सकते हैं आप। जब कुछ खास पढ़ने-लिखने का मन ना हो, तो उन्हें उठा लो। तो कहाँ से शुरू करें? केस स्टडीज़ से? कविताओं से? या बच्चों जैसी-सी किताबों से?    

गुनाह को पनाह या उकसावा?

गुनाह को पनाह?

या गुनाह को उकसावा?

या क्या चल रहा है ये? 

कुछ तो है,

जो पिछले कुछ वक़्त से चल रहा है। 

ऐसा-सा ही कुछ रितु की मौत से पहले और बाद में चला था, शायद। तब आदमी और थे। अब और हैं। मगर, वक़्त-बेवक़्त हुक्का महफ़िलें वही है। पैसे आने वाले हैं, की सुगबुगाहट तब थी। और शायद थोड़ी-बहुत फिर से है। गाँव से निकालने वाले अद्रश्य ना होते हुए भी, अद्रश्य जैसे तब थे। फिर से हैं? पैसे भी कितने? किन बेचारों को दिक्कत है, इन थोड़े से पैसों से भी? और कौन हैं, जिन्होंने रोक रखे हैं? या उससे आगे भी कोई साँग है, जो रचने की कोशिशें हो रही हैं?   

या किताबें और पढ़ने-लिखने की बातें चलते ही, गँवारों के यहाँ वक़्त-बेवक़्त होक्के चलने लगते हैं? और घर या आसपास की औरतें परेशान। मगर, अहम है की ये सब करवाते कौन हैं? या जैसे हम सोचते हैं, की दुनियाँ अपने आप ही करती है? करवाएगा या करवाएँगे कौन?          

Friday, July 26, 2024

Internet of Things (IOT), Grey Colour NEO and Ghost Robotics

Internet of Things (IOT) क्या है? 

कैसे काम करता है?

क्या-क्या काम करता है?  

क्या ये घर की लाइट और इससे जुड़े ज्यादातर घर, ऑफिस या फैक्टरियों के इंस्ट्रूमेंटस या व्हीकल्स को इंटरनेट की मदद से दुनियाँ के किसी भी कोने में बैठकर कंट्रोल कर सकता है? या करता है? अगर हाँ? तो किस हद तक?

आपके घर का AC सर्विस के बाद, अगर ठंडा करने की बजाय गर्म करने लगे, तो क्या गड़बड़ हो सकती है?

ठीक करवाने के बाद, अगर और ज्यादा गर्मी करने लगे तो?

यही छोटी-मोटी कोई हेरफेर? 

ऐसे ही, अगर लाइट ठीक करवाने पे या थोड़े बहुत कोई नए स्विच लगवाने पे, आपका इलेक्ट्रीशियन अगर कोई अनचाहा स्विच भी बदल जाए? जैसे मेन स्विच? पहले पुराने जमाने का कोई सफेद सिंगल एंकर कंपनी का शायद, और बाद में कोई डबल grey colour का NEO लगा जाए? कोई खास फर्क नहीं पड़ता शायद? ये कंपनी हो या वो? बिजली वाले को शायद लगा होगा, लगे हाथों ये भी कर देना चाहिए? आपको भी कोई खास फर्क नहीं लगा। हाँ। किसी की ट्विटर वाल पे कुछ देख-पढ़कर, कोई शक जरुर हुआ। उसके कुछ वक़्त बाद, आपने वो स्विच बदलवा दिया। सब ठीक? लेकिन कुछ तारों के हेरफेर भी थे शायद, वो तो नहीं करवाए। अब इलेक्ट्रिसिटी का ABC नहीं पता, तो वो भी क्या फर्क पड़ता है? क्या फालतू के चक्करों में पड़ना? 

पीछे कूलर की जलने की काफी प्रॉब्लम आ रही थी। पर वो शायद सिर्फ यहाँ नहीं थी। लाइट फलेक्टुअट होना, बार-बार आना या जाना भी एक वजह हो सकता है। जो गाँवों में खासकर आम होता है। शिव इलेक्ट्रीशियन, बॉस वाटर पम्प, उसपे सॉफ्ट लाइन कूलर का भी कोई कनैक्शन हो सकता है?  

इस सब में Internet of Things (IOT) का क्या लेना-देना? हो सकता है क्या? पता नहीं। 

चलो छोड़ो, आओ थोड़ा IOT को समझने से पहले, एक रोबॉट से मिलते हैं। 

Ghost Robotics कम्पनी का नाम है। 

जिसके पास कई तरह के रौचक रोबॉट हैं। 

जो सीधे सपाट रोड पे ही नहीं बल्की पानी और बर्फ पे भी मस्त चलते हैं। 

Quadruped Unmanned Ground Vehicle (Q-UGV)  



इसका नया अवतार NEO है। 

ये मैं एक ब्लॉग पढ़ती हूँ, पिछले कई सालों से, वहाँ से पढ़ने को मिला। 2014 में जब मैंने H #16, Type-3 की शिकायत की थी यहाँ-वहाँ, उसके बाद खासतौर पे पढ़ना शुरू किया था, ऐसे-ऐसे विषयों के बारे में।     

“NEO can enter a potentially dangerous environment to provide video and audio feedback to the officers before entry and allow them to communicate with those in that environment,” Huffman said, according to the transcript. “NEO carries an onboard computer and antenna array that will allow officers the ability to create a ‘denial-of-service’ (DoS) event to disable ‘Internet of Things’ devices that could potentially cause harm while entry is made.”

Bruce Schneier, Public Interest Technologist, Harvard Kennedy School

जो कुछ ऊप्पर लिखा है, उनका आपस में कोई सम्बन्ध हो सकता है? ये सब आप सोचो। जानने की कोशिश करते हैं आगे, की इंसान रुपी मशीन और इंसान द्वारा बनाई गई मशीनों में कितना फर्क है? रोबॉटिक्स इंसान का और इंसान रोबॉट्स का अवतार हो सकता है क्या? या ऐसा तो दुनियाँ भर में हो रहा है। ये सामान्तर घढ़ाईयोँ में एक दूसरे के पूरक हो सकते हैं क्या? या ये भी बहुत पहले से हो रहा है?

जैसे एक NEO, Ghost Robotics कंपनी का, तो दूसरा डिज़ाइन, ये घर में बिजली वाला मेन स्विच बदलने वाला? और भी कितने ही ऐसे-ऐसे सामान्तर डिज़ाइन या घढ़ाईयाँ यहाँ-वहाँ, लोगों की असली ज़िंदगियों में। इनमें से किसी का एक दूसरे से कोई नाता नहीं। सोशल स्तर भी बहुत ही असामान्य। एक तरफ रोबॉट्स बनाने वाली कम्पनियाँ और अपने-अपने फील्ड के बेहतर एक्सपर्ट्स, तो दूसरी तरफ? तिनका तक ईधर से उधर होने पर, भड़कने वाले अंजान-अज्ञान लोग। ज्यादातर कम पढ़े-लिखे और मिडिल लोअर या गरीबी के आसपास लोग। अपनी अलग ही दुनियाँ में, जिन्हें कैसे भी और किसी भी नाम पे भड़का दो। कितना आसान है ना, ऐसे लोगों को रोबॉट बनाना? फिर आधी-अधूरी जानकारी तो, अच्छे-खासे पढ़े-लिखों को बना देती है। और यही गैप, इंसान द्वारा इंसान के शोषण के रुप में, जहाँ भर में हो रहा है, राजनीतिक पार्टियों और बड़ी-बड़ी कंपनियों द्वारा।   

Thursday, July 25, 2024

कोड के हिसाब-किताबों की दुनियाँ ?

देश से ही शुरु करें ?

BHARAT से या INDIA से?

क्या फर्क पड़ जाएगा? एक ही तो बात है?

या BHARAT के अक्षर अलग हैं? और INDIA के अलग? या कुछ भी नहीं मिलता, सब कुछ अलग है? फिर कोड की दुनियाँ में तो, एक अक्षर भी इधर या उधर करने से बहुत कुछ बदल जाता है। अक्षर ही क्यों? यहाँ तो कोमा, बिंदी जैसे भी, कुछ का कुछ बना देते हैं। 

देशों की राजनीतिक बोर्डर भी फिर तो शायद कुछ और ही हैं? राजनीती कैसे बदलती है, इन सीमाओं को? अलग-अलग पार्टी की भी अलग-अलग सीमा होंगी फिर तो? या कम से कम वहाँ तो सहमती होगी? या वहाँ भी यही घमासान है? अच्छा, कहाँ-कहाँ की सीमाएँ शाँत हैं और कहाँ-कहाँ की नहीं? कितना वो सही में शाँत हैं? और कितना सिर्फ मीडिया में? ऐसे ही कितना वो सही में अशाँत हैं, और कितना महज़ मीडिया में?         

चलो BHARAT चलें? या INDIA? कैसा सा-है भारत? या BHARAT? और INDIA? या इंडिया?

ऐसा है इंडिया या INDIA? 


और ऐसा है भारत या BHARAT?

ये तस्वीरें गूगल से गूगली हुई हैं 

बूझो तो जानें जैसे?
या दोनों तस्वीरों में 10-15 अंतर ढूंढों जैसे?

मैं क्या और कहाँ-कहाँ से पढ़ती हूँ? 2

मैं क्या और कहाँ-कहाँ से पढ़ती हूँ? या मुझे खबरें कहाँ से मिलती हैं? 

वो भी इतना अलग-थलग (isolated) होने के बावजूद)?  

अलग-थलग? पता नहीं। वक़्त और परिस्तिथियों के साथ, आपके संपर्क और सोशल-सर्कल, शायद थोड़ा-बहुत बदलता रहता है। बहुत ज्यादा नहीं, शायद।   

बहुत-सी खबरें, बहुत ही indirect होती हैं। जैसे कहीं दूर कुछ चल रहा हो और कुछ वक़्त बाद ऐसा लगने लगे, ऐसा ही कुछ-कुछ यहाँ तो नहीं शुरू हो गया? या शायद जो कहीं बहुत कम है, उसका बढ़ा-चढ़ा रुप? या बिगड़ा-स्वरुप? ये लगना या अहसास होना, की शायद ऐसा कुछ चल रहा है? या कुछ तो कहीं गड़बड़ घोटाला है? एक के बाद एक, जैसे कोई सीरीज बनती जाए, तो हूबहू-सी घड़ाईयाँ समझ आने लगती हैं। उस पर अगर आपको Protein Structure Prediction या PCR या Genetic Engineering कैसे होती है, के abc पता हों, तो शायद उतना मुश्किल नहीं होता समझना, जितना किसी भी अज्ञान या अंजान इंसान के लिए हो सकता है। 

जैसे नीचे दी गई ज्यादातर सूचनाएँ, यहाँ-वहाँ से ली गई हैं। कोई ऑफिस, कोई घर, कोई इधर उधर का सोशल सर्कल, कोई दूर कहीं किसी यूनिवर्सिटी का पेज या source कुछ और भी हो सकता है। जैसे किसी का कोई फ़ोन कॉल किसी के पास, या किसी कंपनी या प्रोडक्ट के नाम पे आपके पास। हो सकता है की उस वक़्त आपको ना फ़ोन करने वाले के बारे में और ना ही दी गई या सुनी या देखी गई सुचना के बारे में कुछ पता हो। मगर कुछ वक़्त बाद कुछ और देखकर या  सुनकर लगे, की कहीं न कहीं, ये तो यहाँ या वहाँ मिलती-जुलती सी खबर है? ये यहाँ और वो वहाँ? या शायद ये और ये एक दूसरे से? तो मान के चलो, की वो मिलती हैं। कहीं न कहीं, कोई सन्दर्भ है। अब उस सन्दर्भ को जानने के लिए, आपको उन अलग-अलग सूचनाओं की जितनी जानकारी है, उतना ही उनसे मिलती-जुलती, हूबहू-सी लगने वाली खबर की जानकारी होगी। वो हूबहू सी घड़ाईयाँ, आसपास भी हो सकती हैं और दुनियाँ के किसी और कौने में भी।  



















कैसे? जानने की कोशिश करते हैं, अगली पोस्ट में। 

मैं क्या और कहाँ-कहाँ से पढ़ती हूँ? 1

What Media I Consume?

मीडिया में मेरे हिसाब से तो बहुत कुछ आता है। मीडिया, मेरे लिए शायद वो इकोलॉजी है, जो हमारे जीवन को किसी भी प्रकार के जीव-निर्जीव के सम्पर्क में, जाने या अंजाने आने पर, या आसपास के समाज के बदलावों से भी प्रभावित करता है। जैसे माइक्रोलैब मीडिया, सूक्ष्म जीवों को। मगर यहाँ मैंने उसे नाम दे दिया है, सोशल माइक्रोलैब मीडिया कल्चर। लैब मैक्रो (बहुत बड़ी) है, मगर उसे समझने के लिए सुक्ष्म स्तर अहम है।      

जो कुछ भी मैं लिखती हूँ, वो इसी मीडिया से आता है। सामाजिक किस्से-कहानियाँ खासकर, राजनितिक पार्टियों द्वारा, ज़िंदगियों या समाज के साथ हकीकत में धकेले गए तमाशों से।  

पढ़ती क्या हूँ?  

कुछ एक अपने-अपने विषयों के एक्सपर्ट्स के पर्सनल ब्लोग्स (blogs)। कई के बारे में आप पहले भी किन्हीं पोस्ट में पढ़ चुके होंगे। जैसे, 

Schneier on Security  https://www.schneier.com/

Security Affairs https://securityaffairs.com/ 

कुछ यूनिवर्सिटी के Blogs, Nordic Region, Europe से खासकर।  जिन्हें पढ़कर ऐसा लगे, की ये आपसे कुछ कहना चाह रहे हैं शायद, या कुछ खास शेयर कर रहे हैं। 

कुछ एक न्यूज़ चैनल्स, ज्यादातर इंडियन। कुछ एक वही जो अहम है, जिन्हें ज्यादातर भारतीय पढ़ते हैं। ईधर के, उधर के, किधर के भी पढ़ लेती हूँ या देख लेती हूँ। पसंद कौन-कौन से हैं? कोई भी नहीं? थोड़ा-सा ज्यादा हो गया शायद? मोदी भक्ती वाले बिलकुल पसंद नहीं। हाँ। वहाँ भी बहुत कुछ पढ़ने लायक और समझने लायक जरुर होता है। जैसे एक तरफ, कोई भी पार्टी, मीडिया के द्वारा अपना एजेंडा सैट कैसे करते हैं? और जनमानष के दिमाग में कैसे घुसते हैं? तो कुछ में खास आर्टिकल्स या आज का विचार जैसा कुछ होता है। जो भड़ाम-भड़ाम या ख़ालिश एजेंडे से परे या एजेंडा होते हुए भी, मानसिक शांति देने वाला होता है या सोचने पर मजबूर करने वाला। कुछ एक के आर्टिकल्स, आपके आसपास के वातावरण के बारे में या चल रहे घटनाक्रमों के बारे में काफी कुछ बता या दिखा रहे होते हैं। कुछ एक फ़ौज, पुलिस या सुरक्षा एजेंसियां, सिविल एरिया में रहकर या बहुत दूर होते हुए भी, काम कैसे करती हैं, के बारे में काफी कुछ बताते हैं। कुछ एक, राजनीती पार्टियों की शाखाओं जैसी पहुँच, आम आदमी तक और उनके द्वारा अपने प्रभाव या घुसपैठ के बारे में भी लिखते हैं।            

दुनियाँ जहाँ की यूनिवर्सिटी के वैब पेज, मीडिया, मीडिया टेक्नोलॉजी खासकर, या बायो से सम्बंधित डिपार्टमेंट्स के बारे में। जो थोड़ा बहुत जाना-पहचाना सा और अपना-सा एरिया लगता है। 

ये जानने की कोशिश की, क्या दुनियाँ की किसी भी यूनिवर्सिटी के वेब पेज या प्रोजेक्ट में ऐसा कुछ भी मिलेगा, की कोरोना-कोविड-पंडामिक एक राजनितिक बीमारी थी? और कोई भी बीमारी, राजनितिक थोंपी हुई या धकाई हुई हो सकती है? सीधा-सीधा तो ऐसा कुछ नहीं मिला। मगर, ज्यादातर बीमारियाँ हैं ही राजनीती या इकोसिस्टम की धकाई हुई, ये जरुर समझ आया। और वो इकोसिस्टम, वहाँ का राजनितिक सिस्टम बनाता है। कुछ बिमारियों पर, किसी खास वक़्त, राजनीती के खास तड़के और  कुर्सियों की मारा-मारी है। उसे तुम कैसे देख या पढ़ पाओगे, सीधे-सीधे ऑनलाइन? ऑनलाइन जहाँ तो है ही, किसी भी देश के गवर्न्मेंट के कंट्रोल में। वो फिर अपने ही कांड़ों पर मोहर क्यों लगाएंगे? वो आपको सिर्फ वो दिखाएँगे या सुनाएँगे, जो कुछ भी वो दिखाना या सुनाना चाहते हैं। न उससे कम और न उससे ज्यादा।  

मोदी या बीजेपी से नफ़रत क्यों?

वैसे तो मुझे राजनीती ही पसंद नहीं। फिर कोई भी पार्टी हो, फर्क क्या पड़ता है? या बहुत वक़्त बाद समझ आया, की बहुत पड़ता है। 

कोई पार्टी या नेता काँड करे और आपको इसलिए जेल भेझ दे, की आप ऐसा सच बोल रहे हैं, जो उसके काँडो को उधेड़ रहा है? तो क्या भक्ति करेंगे, ऐसे नेता या पार्टी की? 

उसपे अगर मोदी को फॉलो करोगे तो पता चलेगा, इसका बॉलीवुड से और फिल्मों से कुछ ज्यादा ही गहरा नाता है? क्या इसे कुछ और ना आता है? अब बॉलीवुड वालों का तो काम है, फिल्में बनाना। एक PM का उससे क्या काम है? अपनी समझ से बाहर है।  

मुझे पढ़े-लिखे और समाज का भला करने वाले नेता पसंद हैं। नेता-अभिनेता नहीं। तो कुछ पढ़े-लिखे या लिखाई-पढ़ाई से जुड़े नेताओं के सोशल पेज भी फॉलो कर लेती हूँ। वो सोशल पेज, फिर से किसी सोशल मीडिया कल्चर से अवगत कराते मिलते हैं। जैसे हुडा और यूनिवर्सिटी या शिक्षा के बड़े-बड़े संस्थान। गड़बड़ घौटाले समझने हैं, तो उनके ख़ास प्रोजेक्ट्स और टेक्नोलॉजी। जैसे रोहतक की SUPVA से लख्मीचंद (LAKHMICHAND) बनी यूनिवर्सिटी। हर शब्द एक कोड होता है। वो किस नंबर पर है या उसके साथ वाले शब्द कौन-कौन से हैं या दूर वाले कौन से, और कितनी दूर? किस राजनीतिक पार्टी के दौर में कोई भी प्रोजेक्ट आया या इंस्टिट्यूट बना? और वो इंस्टिट्यूट किस विषय से जुड़ा है? उस वक्त की राजनीती के बारे में बताता है। उसका बदला नाम या रुप-स्वरुप या उसमें आए बदलाव, उस बदलाव के वक़्त की राजनीती या पार्टी के बारे में काफी कुछ बताते हैं। 

अब lakhmi कोड का patrol crime से क्या connection? और वो कहेंगे, की किसी कुत्ती के ज़ख्मों पे डालने के लिए पैट्रॉल बोतल, पियकड़ को लख्मी आलायां ने दी थी। करवाया उन्होंने और नाम किसी का? वैसे शब्द या भाषा, वहाँ के सभ्य (?) समाज के बारे में भी काफी कुछ बताता है। Social Tales of Social Engineering, इस पार्टी की या उस पार्टी की? और उनका किसी या किन्हीं इंस्टीटूट्स में छुपे, प्रोजेक्ट्स या टेक्नोलॉजी से लेना-देना? ठीक ऐसे ही बिमारियों का और उनके लक्षणों का भी। ये सोशल मीडिया पेजेज से समझ आया है। 

संकेतों या बिल्डिंग्स के नक़्शों या कुछ और छुपे कोढों को समझना हो, तो शायद, शशि थरूर का सोशल पेज भी काफी कुछ बता सकता है। और इंटरेक्शन का मीडिया, बिलकुल डायरेक्ट नहीं है। कहीं पूछो, की तुम इन सबको जानते हो या ये तुम्हें जानते हैं? मैं इन्हें या ये मुझे उतना ही जानते हैं, जितना आपको। ज्यादातर आम आदमी को। ऐसे ही पढ़ना चाहो या समझना चाहो, तो वो आप भी कर सकते हैं। उसके लिए आपको किसी को जानने या मिलने की जरुरत नहीं है। एकदम indirect, वैसे ही जैसे, सुप्रीम कोर्ट के फैसले या CJI खास एकेडेमिक्स इंटरेक्शन प्रोग्राम्स। या कहो ऐसे, जैसे हम कितने ही लेखकों की किताबें पढ़ते हैं, मगर मिलते शायद ही कभी हैं।   

अब वो सोशल मीडिया पेज आप-पार्टी के किसी नेता का भी हो सकता है और कांग्रेस के भी। JJP का भी हो सकता है और कहीं महाराष्ट्र की शिवसेना की आपसी लड़ाई से सम्बंधित आर्टिकल्स भी। महाराष्ट्र की शिवसेना की लड़ाई के आर्टिकल्स तो और भी आगे बहुत कुछ बताते हैं। भगवान कैसे और क्यों बनते हैं? उन्हें कौन बनाता है? उस समाज में किसी वक़्त आए या कहो लाए गए रीती-रिवाज़ों के बदलावों से उनका क्या सम्बन्ध है? ऐसे ही जैसे, JJP का ऑनलाइन लाइब्रेरी प्रोग्राम या शमशानों के रखरखाव में क्या योगदान है? GRAVEYARDS? और आगे, उसका कैसे प्रयोग या दुरुपयोग हो सकता है?  

वैसे ट्रायल के दौरान किसी को जेल क्यों? बेल क्यों नहीं? या ट्रायल के दौरान ही, कोई कितना वक़्त जेल में गुजारेगा? ऐसा या ऐसे क्या जुर्म हैं? अब आम आदमियों की तो बात ही क्या करें। ये आप पार्टी के नेताओं के साथ क्या चल रहा है? फिर मोदी के साथ क्या होना चाहिए? वैसे मैं किसी बदले की राजनीती के पक्ष में नहीं हूँ। मगर, सोचने की बात तो है। मोदी जी, है की नहीं? सोचने की बात? या मन की बात?

काफी लिख दिया शायद। अब मत कहना की जो लिखती हूँ या जहाँ से आईडिया या प्रोम्प्ट या ख़बरें मिलती हैं, उनके रेफेरेंस नहीं देती। और डिटेल में फिर कभी किसी और पोस्ट में।   

Tuesday, July 23, 2024

आदमी की जान की कीमत बस इतनी-सी?

अगर मार्च 2020 के उस पहले हफ्ते में मैं बिना किसी शक हॉस्पिटल ईलाज कराने जाती, तो क्या कुछ हो सकता था मेरे साथ?  

Quarantine and Barrack No 5? Kinda House Arrest? जेल से निकलने पर 10 5 पहुँचों? आगे के तमाशे वहाँ दिखाएँगे? ऑफिस के किसी खास स्टोर का कोड (नंबर) था ये। और यहाँ गाँव के पते में, पता नहीं कब से और किसने चेपा हुआ है? भाजपा आने के बाद हुआ है या कांग्रेस ने ही लगा दिया था। क्यूँकि, शुरू से तो है नहीं।    

ऐसे ही, इतने महीनों तक माँ क्या खा-पी रही थी? और उनके ऑपरेशन के वक़्त क्या ड्रामा चल रहा था? 

ठीक वैसे, जैसे बुआ रौशनी गए? 

विजय दांगी को उस दिन कोई रोशन लाल उठा ले गया था, जेल? किन-किन लोगों के साथ? बुआ को कौन रोशनलाल या कौन-सी टीम उठा ले गई? कौन-से वाली जेल? क्या वो अब वापस आएँगे कभी?     

ठीक ऐसे ही, ताऊ रणवीर को उठा दिया गया? कौन-सी और कैसी OXYGEN ख़त्म हो गई थी? 

ठीक ऐसे जैसे, रितु को? यहाँ क्या ख़त्म हो गया था? OXYGEN? या SLOWLY BUT STEADLY TOWARDS DEATH जैसा कुछ पहले से ही चल रहा था? जो मुझे अब समझ आ रहा है? जिसे आमजन समझ ही नहीं पाते? OXYGEN ख़त्म होना तो जैसे ताबूत में आखिरी कील था?      

ठीक ऐसे जैसे, उसके fetuses का अबोरशंस किया किया?

ठीक ऐसे जैसे, अभी पीछे दादी कैंसर से उठा दिए?

कुछ-कुछ वैसे ही जैसे, दादा या चाचा की खास तारीखें थी? और उनके आसपास के घटनाकर्म?  

ठीक ऐसे जैसे, संदीप दांगी के पापा को लकवा था?

ठीक ऐसे जैसे, कश्मीर दादा को और उनके बेटे सोनू (योगेश) को?

ठीक ऐसे जैसे, बुआ सावित्री को?

ठीक ऐसे जैसे, सीमा दहिया को हुआ था, भाजपा आते ही? Hooda के खास हैं वो। 

ठीक ऐसे जैसे, माँ जाने के बाद गुड़िया को पीलिया हुआ?

मतलब, छोटी से छोटी और बड़ी से बड़ी बीमारियाँ, राजनीतिक कोढों का हिस्सा हैं?  

ये कैसा और कौंन-सा खेल, ये राजनीतिक पार्टियाँ खेल रही हैं, आम आदमी के साथ?

और ये तो सिर्फ कुछ केस बताए हैं। सारी दुनियाँ का यही हाल है। कहीं कम तो कहीं ज्यादा।  

क्या इन सबके वीडियो हैं आपके पास? या किसी की भी बीमारी या मौत के? छुपे हुए या वायरल? किसी भी फॉर्म में? उनके रहस्य भी तो पता चलें दुनियाँ को। उन्हें क्यों छुपाना चाहते हैं आप? और उनके सुराग तक देने वालों को जेल या मौत या निकलो देश से? किसका देश है ये? गुंडों या आदमखोरों का? या आम आदमी का भी कोई हक़ है इसपे?      

जो ये पार्टियाँ खेल रही हैं, क्या वो सच में सिर्फ कुछ रिश्तों की टैस्टिंग या up-down है? या वो सब तो सिर्फ बहाना है?  समाज को अपनी गोटियाँ बनाकर, उनकी ज़िंदगियों को मानव रोबॉट-सा अपने अनुसार चलाना और सत्ता के लिए उनका दोहन करना ही अहम है?   

इस fact all में और भी ऐसे-ऐसे और कैसे-कैसे प्रश्न हो सकते हैं। नहीं? 

ये कैसा खेल या राजनीती है?

 "घर किराए पे दिया हुआ है। ना किराया दे रहे हैं और ना ही घर खाली कर रहे हैं। हॉकी लेकर आए हुए हैं, घर खाली करवाने। "   

ये हॉकी लेकर रेंट वालों के पीछे कब से पड़े हुए हो?

दिल्ली टाइम्स?

यहाँ MDU में भी, तुम्हारी ही हॉकी का राज चल रहा है क्या? 

या यहाँ कोई और महान हैं, जिन्होंने सरकारी मकानों तक को अपना प्राइवेट लिमिटेड बना लिया है?

ये कैसा खेल या राजनीती है, जिसमें कोई किसी की डिग्री अपने नाम कर लेता है? और कोई किसी की नौकरी? और कोई किसी की बैंक सेविंग पे कुंडली मार बैठ जाता है? और कोई किसी का ऑनलाइन संसार कंट्रोल कर रहा है? तो कोई ऑफलाइन या हकीकत की ज़िंदगी? कोई रिश्तों की रे-रे माटी कर रहा है तो कोई शरीर की ही? ना हुई बीमारियाँ या मौत की नींद तक सुलाकर? और जिनके साथ ये सब हो रहा है, उन्हें खबर तक नहीं, की उनके साथ ऐसा हो रहा है?  

क्या कहा जाए इन सबको? मानव रोबोट्स बनाने वाली सेनाएँ? या आदमखोर लोग?     

Friday, July 19, 2024

Interestingly-controlled living beings?

होर्मोन्स पढ़े हैं क्या आपने?

आदमियों वाले ?

जानवरों वाले? 

या पेड़-पौधों वाले? 

क्या करते हैं वो सब?

जीवन की अलग-अलग स्टेज पर, अलग-अलग तरह के होर्मोन्स, अलग-अलग तरह से शरीर में उत्तपन होते हैं। सही वक़्त पर सही मात्रा में हों, तो काम के होते हैं। मगर, गलत वक़्त पर, या गलत मात्रा में हों तो? Slow Poision, जैसा काम भी कर सकते हैं। बीमारियाँ भी पैदा करते हैं। और वक़्त रहते, अगर उनसे उपजे लक्षणों का या विपरीत प्रभावों का सही से ईलाज ना किया जाए, तो ज़िंदगी के लिए भी खतरा हो सकते हैं। उसके अलावा, बहुत से सामाजिक खतरों की वजह भी। 

अगर आपको इंसानो की बायोलॉजी के बारे में कोई खास जानकारी ना भी हो, तो भी अपने आसपास के पेड़-पौधों और जीव-जंतुओं से आप बहुत कुछ जान सकते हैं। 

जैसे की?  

ये नीली चिड़िया, तार पे इन्हीं कुछ घरों के आसपास क्यों बैठती है?

और ये कबूतरों के डेरे? गुटड़-गुं  कहीं? कहीं जैसे, आसमानी रेस के घोड़े। आसमानी रेस के घोड़े? या? हनुमानी, मँगल के जुआरी?

ये चील, किन्हीं खास 18 को ही चमगादड़ खाने आती है क्या? या मेरा उसे देखने का coincidence ही ऐसा रहा है?

इधर-उधर के निराले नज़ारे देख, मैंने अभी प्रश्न किया नहीं, की ये जीव-जंतुओं की भी ऐसे परेड कैसे करवाते होंगे? और ये विराज, रोटी का टुकड़ा लेकर गाय के आगे-आगे भागते हुए, गली से बाहर करता हुआ क्या दिखा रहा है? 

और ये तो हो गई हद, Tide Over Climate जैसे? ईधर ये मौसी के और ढमालों के "चेन्नई एयरपोर्ट वाले कुत्ते" (?)  और उधर वो पहाड़ों वाले हस्कीज़, "काकी" से आगे निकल "कुकड़ी बन जागी" बोल रहे हों जैसे? Too Much na? 

बाल बुद्धि? मारना बाछड़ा जैसे? जिसे नहीं मालूम की जो खाना दे, कम से कम उसे तो नहीं मारते। 

बैल बुद्धि? खागड़-गाएँ के जोड़े, कहीं ऐसी गाएँ, तो कहीं वैसी गाएँ। कहीं ऐसे खागड़, तो कहीं वैसे खागड़। कैसी-कैसी किस्में और कैसे-कैसे दिन (तारीखें)। कहीं युवा, तो कहीं बुजुर्ग? 

ठीक ऐसे जैसे?

जैसे आप सोचो। मेरा तो इसपे कोई सीरीज का मन है। Interestingly-controlled living beings? पिछले कई महीने से खास निगाह है इनपे। वैसे तो ये सिलसिला, H#30 से ही शुरू हो गया था।   

बैल, बाल से परे

 बैल, बाल से परे 

अंजान-अज्ञान लोगों के 

मानसिक धुर्वीकरण से परे,

आम आदमी को,  

इस बैल या बाल के   

ज्ञान-विज्ञान से अवगत कराने की जरुरत है। 

जिनमें उलझाकर आमजन को 

ये राजनीती वाले अपना उल्लू-सीधा करते हैं। 

ऐसे घुमाओं-फिराओं को 

सीधा-सहज कर, उनकी भाषा में बताने की जरुरत है। 

कैसे भला? 

आप सोचो तब तक। आते हैं इस पर भी। 

    

Wednesday, July 17, 2024

Psycho Certificate and Arrest Warrant Warning?

ऐसी-वैसी धमकियाँ देना गलत बात। Psycho Certificate and Arrest Warrant Warning? दोनों एक साथ चल सकते हैं क्या? 

यूनिवर्सिटी ने 2021 में resignation accept कर लिया। वो भी क्या कुछ लिखकर? 



In such condition, she is not able to teach? Such condition? Mental Condition? Or University's mental and violent environment?  

तो आप ऐसे इंसान को कोई फिंनसियल सुपोर्ट करने की बजाय, उसकी सेविंग पे ही कुंडली मारके बैठ जाते हैं?  क्या किया उसके बाद उसके साथ आपने? 3 साल हो गए resignation भी accept किए हुए? वापस joining तो नहीं करवा ली? नहीं? यही ना? 

तो सेविंग तो अब तक उसके खाते में पहुँच चुकी होंगी? नहीं? क्यों? 

अब कैसे-कैसे तो केसों में फँसाया हुआ है, उसे? उसका वकील आपने किया हुआ है? कोई वकील है, उसके पास? उसके पैसे आप देते हो? उसे पता भी है, की इन कोर्टों में क्या चलता है? वकील ऐसा है, जो हर बार बोलता है, यहाँ कोरे पन्नों पे हस्ताक्षर कर जाओ? और केस, सब सबुत होते हुए भी, सामने वाले की झोली में डाल देता है? किसका वकील है ये? opposite पार्टी का? यूनिवर्सिटी और ये मिले हुए हैं क्या? या भाई चारा चलता है, राजनीतिक पार्टियों का? लालू जैसे चारा खा जाते हैं। और मुलायम जैसे कह देते हैं, लड़को से गलतियाँ हो जाती हैं। अब बताओ, वो सारी ज़िंदगी भुगतें उन गलतियों को? ये तो यहाँ लड़कियों को भुगतना चाहिए, ऐसे भी और वैसे भी?        

अगर किसी की, किसी mental कंडीशन की वजह से उसे नौकरी से कूट, पीट कर हटाया जा सकता है? तो उन्हीं mental कंडीशन में उसके खिलाफ आलतू-फालतू केस भी किए जा सकते हैं? और Arrest Warrant Warning भी दी जा सकती है? जय हो अमृत काल की? दोनों एक साथ चल सकते हैं क्या?  

और ये केजरीवाल जैसों को कब तक जेल में सड़ाओगे? यहाँ तो मोदी को होना चाहिए। नहीं? ये बुरा है, तो वो तो शक्कर बताया? इसीलिए मरती है बेटा तू। इधर वालों को भी बुरा बताती है, और उधर वालों को भी। अरे नहीं, उधर वालों को तो शक्कर बताया किसी ने?                           

Tuesday, July 16, 2024

Sunday, July 14, 2024

Learn and Earn?

Hack The Fall ?

Hackthon ?

Paths Co Op?

SharkTanks?

Learn and Earn? 

और भी कितनी ही तरह के प्रोग्राम और नाम हो सकते हैं? अलग-अलग पार्टियों या देशों के हिसाब-किताब के। फिर वो अमेरका के गलियारों में हों, यूरोप के या खास-म-खास ब्रिटिश लेन में। बड़ी-बड़ी इमारतें और बड़े-बड़े प्रोग्राम, सिर्फ लोगों का शोषण या दोहन करके तो नहीं होंगे? कुछ तो खास होगा, इससे आगे भी? नहीं तो हमारे यहाँ क्यों नहीं है, ये सब? 21 वीं सदी में भी, हम कौन-सा रोना रो रहे हैं?   

शायद कुछ-कुछ वैसे ही, जैसे गरीबी सदियों की, या शायद भेझे से लंजु-पंजू लोगों की? और देन? उनके सिस्टम की या कर्ता-धर्ताओं की? एक ऐसा सिस्टम या ऐसे कर्ता-धर्ता, जो चाहते हैं की लोग पढ़लिखकर भी उनके कशीदे पढ़ें? उनके गलत को गलत ना कहें? उनकी छत्र-छाया (आग उगलती धूप बेहतर शब्द होगा शायद?) से आगे कुछ भी ना देखें, सुनें या अनुभव करें?  

क्यूँकि, कभी-कभी कुछ लोगबाग जिसे गैप कहते हैं, वही शायद सबसे बड़ा आगे बढ़ने में रोड़ा दूर करने वाला, टर्निंग पॉइंट भी हो सकता है? क्यूँकि, जब so-called गैप नहीं था, तो कुछ भी छप ही नहीं रहा था। किसी ने बताया ही नहीं, की इसे कोढ़ वाला PhD गैप कहते हैं। जबकी कैसे-कैसे जोकर तक, कैसे-कैसे पेपर छापे बैठे हैं? और कैसे-कैसे लोग, कैसी-कैसी कुर्सियाँ लिए? कोविड-कोरोना के बाद किसी ने कहा, "मैडम अब कम से कम पेपर छापने में दिक्कत नहीं आएगी"। और किसी के लिए, "अब आपको USA ग्रीन कार्ड आसानी से मिल जाएगा"। शायद उन्हें मालूम नहीं था, की अब वो कौन से पेपर छापेगी? होता है शायद, कभी-कभी? या शायद अक्सर? खासकर, जब आप दूसरे की दुनियाँ या ज़िन्दगी को भी अपने अनुसार धकेलने लग जाओ? और सामने वाले को बिना जाने या सुने धकेलते चले जाओ? और बस धकेलते चले जाओ। सामने वाला चाहे, ऐसा-ऐसा भला चाहने वालों के भले को, दम घुटने की हद तक झेल रहा हो।  

हमारा सिस्टम और राजनीती आम लोगों के साथ यही कर रहा है। मुझे ऐसा लगा। उन सिस्टम बनाने वाले महानों, या राजनीती वालों को ऐसा क्यों नहीं लगता? सोचकर देखो की आप जितना कर रहे हैं, उससे कहीं कम में शायद, लोगों का ज्यादा भला कर सकते हों? और वो खुद आपके लिए भी, फायदे का सौदा हो? या हो सकता है, मैं अभी सिस्टम या राजनीती को उतना नहीं जानती? कुछ एक उदाहरण लें, आगे कुछ पोस्टस में?